अवैध धर्मांतरण से विदेशों से मिलने वाले फंड को खपानेे के लिए छांगुर व उनके सहयोगी कई दावपेच चलते थे। जमीनों की खरीद के लिए तय मालियत पर रजिस्ट्री कराने के बजाय बिक्री का तय मूल्य दिखाकर ही रजिस्ट्री कराता था। जिससे बैंकों में जमा धनराशि निकालने में आसानी होती थी। यह अलग बात है कि जो बिक्री मूल्य रजिस्ट्री या बैनामे में दिखाए जाते थे, उतने जमीन के मालिक को मिलते नहीं थे। यहीं से बैंकों से रुपये हड़पने और फिर उसका उपयोग दूसरे कार्यों के लिए करना आसान हो जाता था।
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बिक्री मूल्य पर लोग चुकाते हैं। इससे स्टांप चोरी जैसे आरोपों से तो बचत होती ही है, खरीद-बिक्री में रुपयों को बचाना भी आसान होता है। बताया कि जमीन का सौदा करके किसी को अधिक रुपये देकर वापस भी लोग ले लेते हैं। इस तरह अभिलेखों में सही दिखते हैं जबकि हेराफेरी बड़ी रहती है। छांगुर के मामले में ऐसे ही संकेत मिले हैं। बैनामों के अभिलेखों को ईडी ले गई है।